गाड़ा बिरादरी-शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी की फौज से किसान तक का सफ़र


  गाड़ा बिरादरी: शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी की फौज से किसान और ज़मींदार तक का सफ़र

दिनांक-02-10-2025
रुड़की-रिपोर्ट ( मौ. गुलबहार गौरी ) उत्तर भारत के इतिहास और पूर्वजों की लोककथाओं में गाड़ा बिरादरी का ज़िक्र हमेशा से वीरता, साहस और संघर्ष के प्रतीक के रूप में आता रहा है। गाड़ा बिरादरी के पूर्वज मुख्यतः शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी की फौज के सैनिक थे, जिन्होंने 12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत पर हुए आक्रमणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह समुदाय युद्ध और सैनिक जीवन से जुड़ा रहा, जिससे उनका मिज़ाज हमेशा जंगी और सक्रिय रहा।

अफ़ग़ानिस्तान का भारत से ऐतिहासिक रिश्ता काफ़ी गहरा रहा है। लगभग 1500 ई.पू. से लेकर प्राचीन और मध्यकालीन समय तक अफ़ग़ानिस्तान का बड़ा हिस्सा भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक दायरे में शामिल रहा। इसी क्षेत्र में ग़ोर प्रांत था, जिसकी राजधानी आज चाघ़चेरान है। लेकिन 12वीं शताब्दी में यहाँ की राजधानी फ़िरोज़कोह हुआ करती थी। उस समय ग़ोर की प्रमुख आबादी सुन्नी मुसलमान थी, जो मुख्य रूप से किसानी करते थे और अपनी बहादुरी व जंगी मिज़ाज के लिए प्रसिद्ध थे।

यहीं से शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी का उदय हुआ। ग़ोर के इन बहादुर किसानों और सैनिकों को साथ लेकर गौरी ने 1192 ई. में तराइन की दूसरी लड़ाई लड़ी और युद्ध जीतने के बाद गौरी ने अपनी सेना के उन सिपाहियों को, जो भारत में बसना चाहते थे, इनाम के तौर पर गंगा–यमुना दोआब और तराइन क्षेत्र की ज़मीनें दीं।

यही सैनिक और किसान आगे चलकर स्थानीय समाज में रच-बस गए और इन्हें बाद में गाड़ा बिरादरी के रूप में जाना गया। इतिहासकार मानते हैं कि 12वीं से 17वीं शताब्दी के बीच कुछ हिंदू राजपूत और अन्य जातियों से भी लोग कन्वर्ट होकर गाड़ा बने, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम रही। इस प्रकार गाड़ा बिरादरी की असली जड़ें ग़ोर के बहादुर किसानों और सैनिकों से जुड़ी मानी जाती हैं।

🕰️ शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी का आक्रमण और भारत में फौज की तैनाती

शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी ने पहली बार 1175 ई. में भारत के मुल्तान पर आक्रमण किया और यहाँ इस्माइली सत्ता को समाप्त किया। इसके बाद 1178 ई. में उसने गुजरात की ओर बढ़कर अन्हिलवाड़ (पाटन) पर हमला किया, लेकिन चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय ने उसे पराजित किया और गौरी सिंध लौट गया। 1182 में उसने सिंध पर अधिकार कर लिया और धीरे-धीरे पंजाब की ओर बढ़ा। 1186 में उसने ग़ज़नवी शासक खुसरो मलिक को हराकर लाहौर पर कब्ज़ा कर लिया, जिससे पंजाब पूरी तरह गौरी के अधीन आ गया।

1191 ई. में हुई तराइन की पहली लड़ाई में गौरी और दिल्ली–अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान के बीच संघर्ष हुआ। इस लड़ाई में गौरी को पराजय का सामना करना पड़ा। लेकिन अगले वर्ष, 1192 ई. में हुई तराइन की दूसरी लड़ाई ने इतिहास के पन्नों को हमेशा के लिए बदल दिया। इस लड़ाई में गौरी ने कुछ हिंदू राजाओं की मदद से पृथ्वीराज चौहान को परास्त किया और उत्तरी भारत में मुसलमान सत्ता की स्थायी नींव रखी। 1194 में हुई चंदावर की लड़ाई में उसने कन्नौज के राजा जयचंद को हराया और गंगा–यमुना के दोआब पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।

इतिहासकारों हसन निज़ामी (ताज-उल-मासिर) और मिन्हाज-उस-सिराज (तबक़ात-ए-नासिरी) ने इन विजयों का विस्तार से उल्लेख किया है। हालांकि इन स्रोतों में सहारनपुर या रुड़की का नाम सीधे नहीं मिलता, लेकिन भौगोलिक विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि जब गौरी अपनी फौज के साथ पंजाब से दिल्ली की ओर कूच कर रहा था, तब सहारनपुर और रुड़की क्षेत्र एक गाँव जैसा होगा जिसमें ख़ाली पड़े मैदान पर फ़ौज का पड़ाव अवश्य हुआ होगा।क्योंकि मुग़लों के दौर में भी सहारनपुर व रूडकी में सैनिक छावनी मौजूद रही है

सहारनपुर उस समय गंगा–यमुना दोआब का पहला बड़ा दर्रा था और रुड़की के पास से गंगा पार करने का रास्ता मिलता था। इसी मार्ग पर गौरी की फौज ने अपने दस्ते तैनात किए होंगे। स्थानीय परंपराएँ और मुस्लिम गाड़ा/गौर बिरादरी की वंशावलियाँ भी यही प्रमाणित करती हैं कि गौरी की फौज के कुछ दस्ते यहीं ठहरे और बाद में यहीं बस गए।

गौरी की हत्या 1206 ई. में अफ़ग़ानिस्तान लौटते समय हुई, लेकिन उसके सेनापति क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में सल्तनत की नींव मजबूत की।

🪖 गाड़ा बिरादरी की तराइन की लड़ाई में भूमिका

लोककथाओं और इतिहासकारों के अनुसार, गाड़ा बिरादरी के पूर्वज गौरी की फौज में प्रमुख सैनिकों में शामिल थे। वे तराइन की दूसरी लड़ाई में विशेष भूमिका निभाने वाले वीर सैनिक माने जाते हैं। युद्ध जीतने के बाद, 1192 ईस्वी के बाद गौरी ने अपने भरोसेमंद सैनिकों को जमीन और स्थायी ठिकाने देने का आदेश दिया।

इस आदेश के अनुसार गाड़ा बिरादरी के पूर्वज उत्तर भारत के गंगा–यमुना दोआब के गाँवों में बस गए। उन्हें खेती और स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी दी गई। धीरे-धीरे ये लोग किसान और ज़मींदार बन गए। गाड़ा बिरादरी की बस्तियाँ मुख्यतः उत्तर प्रदेश (मुजफ्फरनगर), हरियाणा के कुछ गाँव, और सहारनपुर–रुड़की–कलियर में विकसित हुईं। कई गाँव आज भी “गाड़ा” या “गौर” नाम से जाने जाते हैं।

🧾 इतिहास और लोककथा का संगम

फ़ारसी इतिहासकारों ने तराइन की लड़ाई का ज़िक्र किया है, लेकिन व्यक्तिगत सैनिकों के नाम नहीं दिए। इसके बावजूद लोककथाएँ और क्षेत्रीय परंपराएँ मानती हैं कि गाड़ा बिरादरी के पूर्वज गौरी की फौज में शामिल होकर विजय में मदद करने वाले थे। यही कारण है कि उन्हें भारत में जमीन और बसावट का इनाम मिला।

इस प्रकार गाड़ा बिरादरी का इतिहास न केवल सैनिक वीरता और साहस से जुड़ा है, बल्कि उनके द्वारा स्थापित गाँव और ज़मींदारी ने उन्हें क्षेत्रीय पहचान और सामाजिक आधार भी प्रदान किया।

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गाड़ा बिरादरी और गौर ब्राह्मणों में अंतर

उत्तर भारत के समाज में अक्सर गाड़ा बिरादरी और गौर ब्राह्मणों को एक ही पृष्ठभूमि से जोड़ा जाता है। लेकिन ऐतिहासिक और सामाजिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि दोनों में मूलतः बहुत अंतर है।

गौर ब्राह्मणों का इतिहास हज़ारों साल पुराना है। वे मुख्यतः धार्मिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक कार्यों में लगे रहे। उनकी परंपरा पढ़ी–लिखी और शांत मिज़ाज की रही। यदि गाड़ा बिरादरी वास्तव में गौर ब्राह्मणों से कन्वर्ट हुई होती, तो उनके पूर्वज सदियों से पढ़े–लिखे और शांत स्वभाव के होते।

इसके विपरीत, गाड़ा बिरादरी के पूर्वजों का मिज़ाज हमेशा से जंगी और सक्रिय रहा। वे 12वीं–13वीं शताब्दी से फौजी जीवन से जुड़े रहे फिर किसान बन गए यहाँ तक कि 100–150 साल पहले तक भी इनका शिक्षा स्तर नगण्य था।

🌾 सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान

पूर्वजों की लोककथाओं और फ़ारसी इतिहासकारों के लेखों के आधार पर यह समझा जा सकता है कि गाड़ा बिरादरी की पहचान सैनिक वीरता, जंगी मिज़ाज और भारत में बसावट के बाद किसान व ज़मींदारी जीवन से बनी। जबकि गौर ब्राह्मणों की पहचान धार्मिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारियों से जुड़ी रही।

इससे स्पष्ट है कि गाड़ा बिरादरी का गौर ब्राह्मणों से सीधा संबंध नहीं माना जा सकता। गाड़ा बिरादरी ने अपने संघर्ष, वीरता और मेहनत से उत्तर भारत के दोआब में स्थायी पहचान बनाई।

🏰 निष्कर्ष

गाड़ा बिरादरी का इतिहास एक जीवंत दस्तावेज़ है जो सैनिक जीवन, विजय, संघर्ष और क्षेत्रीय पहचान की कहानी कहता है। उनकी वीरता और साहस की गूँज आज भी उत्तर भारत के गाँवों, ज़मींदारी व पूर्वजों की लोककथाओं में सुनाई देती है।
ये लेख कुछ इतिहासकारों व पूर्वजों की लोककथाओ के आधार पर लिखा गया हैं


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