हिंदुस्तान की आज़ादी में उलेमा और आम जनता का नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश योगदान


हिंदुस्तान की आज़ादी में उलमा-ए-किराम और आम जनता का नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश योगदान

9PM TV – मौ. गुलबहार गौरी की कलम से…..

रुड़की। 13 अगस्त 2025 हिंन्दुस्तान की  आज़ादी की जद्दोजहद में उलमा-ए-किराम और आम जनता का योगदान नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश है। 200 साल की अंग्रेज़ी गुलामी के खिलाफ लड़ी गई इस जंग में जहाँ राजनीतिक नेताओं और क्रांतिकारियों ने हिस्सा लिया, वहीं उलमा और आम अवाम ने भी बड़ी संख्या में अपनी जानों की कुर्बानी दी और सख़्त तकलीफें झेलीं।

इतिहासकारों के अनुसार, जब 18वीं सदी के अंत में अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हिंदुस्तान पर बढ़ने लगा और उन्होंने यहाँ के मज़हब, तहज़ीब और समाज को प्रभावित करना शुरू किया, तब उलमा ने इस हस्तक्षेप का विरोध करते हुए जनता को जागरूक करना शुरू किया।

सबसे पहले 1803 में हज़रत मौलाना शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रह. ने अंग्रेज़ों के खिलाफ फ़तवा जारी किया, जिसमें उन्होंने हिंदुस्तान को दारुल हरब करार दिया। यह फ़तवा अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ एक मज़बूत मज़हबी बुनियाद बन गया, जिसने हजारों मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शरीक होने की प्रेरणा दी।

1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी में उलमा का किरदार निर्णायक रहा। मौलाना क़ासिम नानौतवी रह., हाफ़िज़ ज़ामिन शहीद रह., मौलाना फ़ज़ल हक़ खैराबादी, मौलाना अहमदुल्लाह शाह समेत कई उलमा ने अंग्रेज़ों के खिलाफ खुला ऐलान-ए-बगावत किया। इन लोगों ने अंग्रेज़ी राज के खिलाफ फ़तवे जारी किए और आम अवाम से हथियार उठाने की अपील की। इस आंदोलन को मुसलमानों के साथ-साथ हिंदू समुदाय का भी साथ मिला।

हज़रत मौलाना महमूद हसन देवबंदी रह. और मौलाना उबेदुल्लाह सिंधी ने रेशमी रुमाल तहरीक के ज़रिए अंग्रेज़ों को उखाड़ फेंकने की रणनीति बनाई। इस तहरीक का मक़सद तुर्की और अफगानिस्तान जैसे देशों से मदद लेकर हिंदुस्तान को आज़ाद कराना था। हालांकि यह योजना सफल नहीं हो सकी, लेकिन इन नेताओं की कुर्बानी ने आज़ादी की लड़ाई को अंतरराष्ट्रीय समर्थन दिलाने की कोशिश की।

मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना शौकत अली, मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह देहलवी, मौलाना हिफ्ज़ुर्रहमान स्योहारवी और मौलाना अहमद सईद देहलवी जैसे उलमा ने कांग्रेस और खिलाफ़त तहरीक के साथ मिलकर आज़ादी की लड़ाई को मज़बूती दी। इन नेताओं ने देश के कोने-कोने में जाकर जनता को जागरूक किया और अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ आवाज़ बुलंद की।

उधर आम जनता ने भी इस जंग में पीछे न हटते हुए तन, मन और धन से समर्थन किया। किसानों ने कर देने से इंकार किया, मज़दूरों ने हड़तालें कीं और छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़कर आंदोलन में भाग लिया। जगह-जगह पर सभाएं हुईं, रैलियां निकाली गईं और अंग्रेज़ी माल का बहिष्कार किया गया।

15 अगस्त 1947 को जब हिंदुस्तान आज़ाद हुआ, तो यह केवल राजनीतिक जीत नहीं थी, बल्कि एक सामाजिक और मज़हबी इत्तिहाद का भी नतीजा था। इस लड़ाई में जहां महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस जैसे ग़ैर-मुस्लिम रहनुमा थे, वहीं मुस्लिम उलमा और आम लोग भी किसी से पीछे नहीं थे।

आज़ादी के इस मौके पर उलमा-ए-किराम सहित अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले हर हिन्दुस्तानी की कुर्बानियों को याद करना और उन्हें ताज़गी देना इसलिए ज़रूरी है ताकि आज की पीढ़ी को यह इल्म हो सके कि मुल्क की आज़ादी के लिए हर तबक़े ने अपना किरदार निभाया था।

“यह आज़ादी हमारे पूर्वजों की दी हुई अमानत है। हमें इसे बचाने और मुल्क की तरक़्क़ी के लिए काम करने का संजीदगी से एहसास होना चाहिए।”

15 अगस्त को पूरे देश में जश्न-ए-आज़ादी मनाया जाता है। हर गली, मोहल्ले, स्कूल और दफ़्तर में तिरंगा लहराया जाता है, और वतनपरस्ती के नारों से फ़िज़ा गूंज उठती है। यह दिन हर हिंदुस्तानी के लिए गर्व और एहसानमंदी का दिन है।


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