बीजेपी का ‘विकास मॉडल’ या तालीम का क़त्ल? ग़रीब, दलित, पसमांदा बच्चों से छीना जा रहा है तालीम का हक़, देशभर में 89 हज़ार से ज़्यादा सरकारी स्कूलों पर ताले
नई दिल्ली/लखनऊ, जून 2025:
( मौ. गुलबहार गौरी)
ये सिर्फ़ आंकड़ों की बात नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की आने वाली नस्लों से उनके तालीमी हक़ को छीनने की एक खतरनाक साज़िश है। मुल्क की केंद्र और बीजेपी हुकूमत वाली रियासतों में तालीम का जो हाल किया जा रहा है, वो संविधान की रूह पर सीधा हमला है। 2014 से लेकर अब तक पूरे मुल्क में 89,441 सरकारी स्कूल बंद किए जा चुके हैं,और हैरान कर देने वाली बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर — तक़रीबन 60 फ़ीसद — सिर्फ़ तीन बीजेपी शासित सूबों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और असम में बंद हुए हैं।
स्कूलों पर ताले और ख़्वाबों का दम घुटता हुआ
हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में ही 25,126 स्कूलों को बंद कर दिया गया, मध्य प्रदेश में 29,410 स्कूलों पर ताले लगे। और ये वही सूबे हैं जहां तालीम पहले ही ग़रीब, दलित और पसमांदा बच्चों की पहुंच से दूर होती जा रही थी। अब इन स्कूलों के बंद होने से हालात और बदतर हो गए हैं।
दूसरे सूबों में भी तालीम का बुरा हाल
मध्य प्रदेश के बाद नंबर आता है जम्मू-कश्मीर का, जहां 2014-15 में सरकारी स्कूलों की तादाद 23,874 थी, जो अब 21.4 फ़ीसद गिरकर 18,758 रह गई है।
ओडिशा में स्कूलों की तादाद 58,697 से 17.1% घटकर 48,671 हो गई।
अरुणाचल प्रदेश में 3,408 से घटकर 2,847 (16.4% कमी)।
उत्तर प्रदेश में 1,62,228 से गिरकर 1,37,102 (15.5% कमी)।
झारखंड, नगालैंड, गोवा, उत्तराखंड — हर तरफ स्कूल कम हुए, बच्चे दूर हुए, तालीम पीछे छूट गई।
उम्मीद की रौशनी: बिहार
इस सब के बीच बिहार ने एक अलग रास्ता अख़्तियार किया। वहां 2014-15 में जहां 74,291 सरकारी स्कूल थे, वो अब बढ़कर 78,120 हो गए हैं — यानी 5 फ़ीसद इज़ाफा। बिहार ने दिखाया कि अगर नीयत साफ़ हो तो ग़रीब बच्चों तक तालीम पहुंचाई जा सकती है।
बाबासाहेब का ख़्वाब और आज की हक़ीक़त
बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था — “तालीम शेरनी का दूध है, जो पिएगा वो दहाड़ेगा।”
मगर आज हाल ये है कि तालीम ही छीनी जा रही है, खासकर उन बच्चों से जो दहाड़ने की ताक़त रखते हैं। स्कूल बंद करके उनके मुस्तकबिल पर ताले लगाए जा रहे हैं।
सड़कों पर तालीम का मातम
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, असम और दूसरे सूबों में तलबा और उस्ताद सड़कों पर निकल आए हैं। बैनर, पोस्टर, और नारों के साथ — “स्कूल खोलो”, “तालीम दो”, “हमारा हक़ वापस करो” — लेकिन सरकार ना सिर्फ़ उनकी आवाज़ दबा रही है, बल्कि उनको परेशान भी कर रही है।
कई जगहों पर उस्तादों का तबादला, स्कूलों की इमारतें खंडहर बनती जा रही हैं, और गांव के बच्चे तालीम से महरूम होते जा रहे हैं।लोग ये भी कह रहे कि 89441 बंद पड़े स्कूलों की इन इमारतों व जमीन का क्या होगा। शायद इसका जवाब तो आने वक़्त ही दे पाएगा ।
सरकार का जवाब और सच्चाई का आईना
बीजेपी हुकूमत का कहना है कि स्कूल इसलिए बंद हो रहे हैं क्योंकि तलबा की तादाद कम हो गई है, और संसाधनों की बचत के लिए ये क़दम ज़रूरी है।
मगर सवाल ये है कि जब स्कूल दूर होंगे, तालीम महंगी होगी, और इंटरनेट व डिजिटल सुविधाएं मौजूद नहीं होंगी, तो ग़रीब बच्चा पढ़ेगा कैसे?
माहिरीन की राय
तालीमी मसलों पर गहरी नज़र रखने वाले प्रोफ़ेसर अशफ़ाक़ अली कहते हैं, “ये सिर्फ़ एडमिनिस्ट्रेशन का मामला नहीं, ये एक खास तबके को तालीम से दूर रखने की सोची-समझी साज़िश है।”
सामाजिक कार्यकर्ता रुबीना हक़ का कहना है, “सरकारी स्कूलों को बंद कर के बच्चों को मजबूर किया जा रहा है कि या तो वो पढ़ाई छोड़ें, या फिर कर्ज़ लेकर प्राइवेट स्कूलों में जाएं। ये न इंसाफ़ है।”
नतीजा: सवाल बाक़ी है
क्या तालीम अब सिर्फ़ अमीरों का हक़ रह जाएगी?
क्या ग़रीब, दलित, आदिवासी और पसमांदा बच्चे सिर्फ़ मज़दूरी और बेगारी के लिए ही पैदा होते रहेंगे?
क्या संविधान में लिखा “सबको बराबर तालीम का हक़” अब सिर्फ़ किताबों तक महदूद रहेगा?
हक़ीक़त तो ये है कि ये सिलसिला अगर नहीं रुका, तो आने वाले सालों में तालीम एक ख़ास तबके की जागीर बन जाएगी।
और बाकी मुल्क — सिर्फ़ मज़दूर, ड्राइवर, चौकीदार और सफ़ाईकर्मी बन कर रह जाएगा।
इसलिए आज जरूरत है कि हुकूमतें होश में आएं, बंद स्कूलों को फिर से खोला जाए, उस्तादों की भर्ती हो, और तालीम को हर बच्चे तक मुफ़्त, आसान और बराबरी के साथ पहुंचाया जाए।
वरना सिर्फ़ तालीम ही नहीं, मुल्क का मुस्तकबिल भी बंद दरवाज़ों में कैद हो जाएगा।