हुसैन सबके हैं’ थीम पर रुड़की में 10 दिवसीय नूरानी लंगर सम्पन्न, आशूरा पर 2000 से ज़्यादा लोगों ने लिया तबर्रुक़ का मज़ा
रुड़की: रिपोर्ट ( मौ.गुलबहार गौरी)
रुड़की में मुहर्रम उल हराम की मुक़द्दस यादों के साये में अंजुमन गुलामाने मुस्तफा सोसाइटी (रुड़की चैप्टर) की जानिब से ‘हुसैन सबके हैं’ थीम पर 10 रोज़ा नूरानी लंगर का इनइक़ाद किया गया, जो 1 मुहर्रम से शुरू होकर 10 मुहर्रम यानी रोज़-ए-आशूरा को ख़ास अंदाज़ में सम्पन्न हुआ। इस इख़्लासी लंगर का मक़सद सिर्फ़ तबर्रुक़ तक महदूद नहीं रहा, बल्कि एक पैग़ाम-ए-इंसानियत भी हर शख़्स तक पहुँचाया गया।
रविवार को आशूरा के दिन समापन के मौक़े पर 2000 से ज़्यादा लोगों को मटर पनीर, चावल और ठंडा बादाम शेक परोसा गया। पूरे इलाके में यह लंगर एक मिसाल बन गया — यकजहती, मुहब्बत और इंसानियत का।
हुसैनी लंगर, एक मज़हबी नहीं, इंसानी पैग़ाम
इस लंगर की सबसे ख़ूबसूरत बात थी इसकी थीम – ‘हुसैन सबके हैं’। यह सिर्फ़ एक नारा नहीं, बल्कि एक एहसास था कि कर्बला का पैग़ाम मज़हब की सरहदों में नहीं बंधा। इमाम हुसैन अ.स. की शहादत किसी एक फिरक़े के लिए नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत के लिए थी।
कुंवर शाहिद (सचिव, सोसाइटी) ने बताया कि लंगर रामपुर रोड पर उमर एन्क्लेव के बाहर लगाया गया, जहां हर दिन अलग-अलग शुद्ध शाकाहारी व्यंजन जैसे दाल मखनी, राजमा, छोले, आलू टमाटर, मटर पनीर वग़ैरह तैयार कर वितरित किए गए। रोज़ाना सैंकड़ों लोगों ने इस नेकी में शरीक़ी की, और आशूरा के दिन पर ये तादाद दो हज़ार से भी ज़्यादा हो गई।
कर्बला – कुर्बानी का वो सबक़ जो हमेशा ज़िंदा रहेगा
10 मुहर्रम 61 हिजरी को कर्बला की तपती रेत पर इमाम हुसैन अ.स. ने अपने पूरे घराने के साथ ज़ुल्म के ख़िलाफ़ जो शहादत दी, वो आज भी इंसाफ़ और हक़ की आवाज़ बनी हुई है। उनके मासूम बेटे अली असग़र से लेकर बहादुर भाई हज़रत अब्बास तक — हर एक की कुर्बानी एक अमर दास्तान बन चुकी है।
शाहिद नूर (अध्यक्ष, सोसाइटी) कहते हैं, “कर्बला तारीख़ नहीं, तहज़ीब है — जब-जब ज़ुल्म सर उठाएगा, हुसैनी किरदार उसका मुक़ाबला करेगा।” उन्होंने आगे कहा कि इस लंगर के ज़रिए यह पैग़ाम दिया गया कि इमाम हुसैन अ.स. किसी एक क़ौम के नहीं, बल्कि हर उस इंसान के रहनुमा हैं जो इंसाफ़ चाहता है।
हैदर बोले: “मुहर्रम मातम नहीं, सब्र और वफ़ा की मिसाल है”
आयोजन संयोजक आसिफ़ अली उर्फ़ हैदर ने कहा कि मुहर्रम सिर्फ़ आँसू बहाने का महीना नहीं, बल्कि हक़ और वफ़ादारी की गवाही देने का वक्त है। “हम रोज़ा रखते हैं, सबीलें लगाते हैं, और लंगर बाँटते हैं — ताकि दिखा सकें कि मोहब्बत-ए-हुसैन आज भी दिलों में जिंदा है।”
सांझा मेहनत, सांझा पैग़ाम
इस लंगर को कामयाब बनाने में हर मज़हब, हर तबक़े के लोगों ने शिरकत की। सेवा में शामिल रहे नसीम अहमद टायर वाले, काकू साबरी, सलमान, फरज़ान, दानिश, आदिल गौर, अकिल गौर, गौरव बंसल, रामपाल सिंह, परवेज़ आलम, रेहमान ख़ान, सुहैल ख़ान और दर्जनों स्थानीय स्वयंसेवक जिन्होंने दिन-रात लगकर बिना किसी भेदभाव के सेवा की।
इंसानियत का इश्तेहार बना ‘हुसैनी लंगर’
इस 10 रोज़ा आयोजन ने एक बार फिर साबित किया कि मुहर्रम का दर्द इंसानी रूह को जोड़ता है, तो लंगर जैसे आयोजन समाज को जोड़ते हैं। कोई धर्म पूछने वाला नहीं था, कोई जात पूछने वाला नहीं — सब एक साथ बैठे, साथ खाए और हुसैनियत के इस कारवां में शामिल हुए।
आख़िर में यही पैग़ाम…
जब दुनिया नफ़रतों और तफ़रीक़ों में बंटी हुई है, तब हुसैन अ.स. का पैग़ाम रोशनी की तरह चमकता है — कि सर तो कट सकता है, लेकिन ज़ुल्म के आगे झुकाया नहीं जा सकता।